राजा की रानी
इस तरह के उलझनों और शिकायतों से सिर्फ रतन ही अकेला नहीं, घर-भर के हम सभी अभ्यस्त हो गये थे; इसलिए, वह भी जैसे चुप रह गया मैं भी वैसे ही कुछ नहीं बोला। देखा कि एक बड़ी टोकनी में चावल-दाल-घी-तेल आदि तथा दूसरी एक छोटी डलिया में नाना प्रकार की भोज्य सामग्री सजाई गयी है। मालूम होता है कि इनके परिमाण और इनके ढोने की शक्ति-सामर्थ्य के विषय में ही रतन प्रतिवाद कर रहा था। ठीक यही बात निकली। राजलक्ष्मी ने मुझे मध्य्स्थ मानते हुए कहा, “सुनो इसकी बात। इससे इतना-सा बोझ ले जाते न बनेगा! इतना तो मैं भी ले जा सकती हूँ, रतन!” यह कहते हुए उसने खुद झुककर उस बोझे को आसानी से उठा लिया।
वास्तव में, बोझ के लिहाज से एक आदमी के लिए- और तो क्या रतन के लिए भी उसका ले जाना कोई कठिन न था; पर कठिन थी एक दूसरी बात। इससे रतन की इज्जत में बट्टा जो लगता! पर शरम के मारे मालिक के सामने उस बात को वह मंजूर नहीं कर सकता। मैं उसका चेहरा देखते ही बड़ी आसानी से ताड़ गया। मैंने हँसकर कहा, “तुम्हारे यहाँ तो काफी आदमी हैं, रिआया की भी कमी नहीं-उन्हीं में से किसी को भेज दो। रतन, न हो तो उसके साथ-साथ चल जायेगा रीते-हाथ।”
रतन नीचे को निगाह किये खड़ा रहा। राजलक्ष्मी एक बार मेरी तरफ और एक बार उसकी तरफ देखकर हँस पड़ी; बोली, “अभागा आधे घण्टे तक झगड़ता तो रहा, पर मुँह से बोला नहीं कि माँ, ये सब छोटे काम रतन बाबू नहीं कर सकेंगे! अब जा, किसी को बुला ला।”
उसके चले जाने पर मैंने पूछा, “सबेरे उठते ही यह सब क्या शुरू कर दिया?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “आदमी के खाने की चीजें सबेरे ही भेजी जाती हैं।”
“मगर भेजी कहाँ जा रही हैं? और उसकी वजह भी तो मालूम हो?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “वजह? आदमी खाएँगे, और जा रही हैं ब्राह्मण के घर।”
मैंने कहा, “वह ब्राह्मण है कौन?”
राजलक्ष्मी मुसकराती हुई कुछ देर चुप रही, शायद सोचने लगी कि नाम बताऊँ या नहीं। फिर बोली, “देकर कहना नहीं चाहिए, पुण्य घट जाता है। जाओ, तुम हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल आओ- तुम्हारी चाय तैयार है।”
मैं, फिर कोई प्रश्न बिना किये ही, बाहर चला गया।
लगभग दस बजे होंगे। बाहर के कमरे में तख्त पर बैठा, कोई काम न होने से, एक पुराने साप्ताहिक पत्र का विज्ञापन पढ़ रहा था। इतने में एक अपरिचित कण्ठ-स्वर का सम्भाषण सुनकर मुँह उठाकर देखा तो आगन्तुक अपरिचित ही मालूम हुए। वे बोले, “नमस्कार बाबूजी।”
मैंने हाथ उठाकर प्रति-नमस्कार किया और कहा, “बैठिए।”
ब्राह्मण का अत्यन्त दीन वेश था, पैरों में जूता नदारद, बदन पर कुरता तक नहीं, सिर्फ एक मैली चादर-सी पड़ी थी। धोती भी वैसी ही मलिन थी, ऊपर से दो-तीन जगह गाँठें बँधी हुईं। गँवई-गाँव के भद्र पुरुष के आच्छादन की दीनता कोई आश्चर्य की वस्तु नहीं है, और सिर्फ उसी पर से उसकी गार्हस्थिक अवस्था का अनुमान नहीं किया जा सकता। खैर, वे सामने बाँस के मूढ़े पर बैठ गये और बोले, “मैं आपकी एक गरीब प्रजा हूँ- इसके पहले ही मुझे आना चाहिए था, बड़ी गलती हो गयी।”